!!ग्वाल समाज!!




_चन्द्रवंशी_यादव_ग्वाल ग्वाला समाज _का इतिहास_

ययाति बिरजा के गर्भ से उत्पन्न महाराज नहुष के पुत्र थे. वे भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए इनके पिता नहुष को अगस्त आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया, तब ययाति राजा के पद पर बैठे। उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए। देवयानी के गर्भ से महाराज ययाति के यदु नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ और यदु से यदु वंश चला। महारज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी। यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी? इसका विवरण इस प्रकार है:-
शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी। राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे। देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी.
ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी. उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी. उस उपवन में सुंदर-सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे. उसमे एक सुंदर सरोवर भी था. सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे. उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे. इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी. उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले. भगवान शन्कर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी. जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए. इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली-"ये शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया? जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है, उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है. मेरे वस्त्र धारण कर तू ने मेरा अपमान किया है." देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा-" ये भिखारिन! तूने अपने आप के क्या समझ रखा है? तुझे कुछ पता भी है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है.. क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला? " यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया. देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी.
संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी. पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था. उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी. राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया. कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा-"हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे. मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं. निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने येसा श्राप दिया है." देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए. इसके बाद ययाति अपने घर चले गये. उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया. पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया. वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए. यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें- ऐसा विचार कर वह गुरूजी के पास आये और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना किया. तब शुक्राचार्य जी बोले-"हे राजन! देवयानी को मना लो. वह जो कहे उसे पूरा करो." वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा. तब देवयानी बोलीं -" मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ शर्मिष्ठा उसके यहाँ मेरी दासी बनकर रहे. शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा.तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया. एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया. समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी. शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा
शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?
आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन दिया गया है.****कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर, शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी, उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|**** जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले-" हे स्त्री लोलुप! तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये"| तब ययाति जी बोले-"हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है| इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा"| मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा येसा सोचकर, बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए, शुक्राचार्य जी बोले -" जाओ! यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो" |
यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले-'बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो"| तब यदु जी बोले-" पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है"| इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा-"हे पुत्र! तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना"| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे. परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|

#राजा_ययाति_का_गृह_त्याग

****इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है, सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे," हे प्रिय! हे देवयानी! तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है, बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है, कम नहीं होती| शरीर बूढा हो जाता हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए.| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन-प्रति-दिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूंगा'| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया|
तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में, यदु को दक्षिण दिशा में, तुर्वसु को पश्चिम दिशा में तथा अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया| पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयम वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने येसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान् का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी|
महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु,, अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए.
ययाति से यदु उत्पन्न हुए,| यदु से यदुवंश चला| यदु वंश में यदु की कई पीढ़ियों के बाद भगवान् श्री कृष्ण,माता देवकी के गर्भ से, मानव रूप में अवतरित हुए|
यदुवंश के संस्थापक यदु, महाराजा ययाति के पुत्र थे। उनका जन्म देवयानी के गर्भ से हुआ। यदु के वन्शज यादव कहलाए। महाराज ययाति के दो रानियाँ थी एक का नाम था देवयानी और दूसरी का शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र तथा शर्मिष्टा के गर्भ से दुह्यु,अनु और पुरू नामक तीन पुत्र हुए। ययाति के पुत्रो से जो वंशज चले वे इस प्रकार है;- १. यदु से यादव, २. तुर्वसु से यवन, ३. दुह्यु से भोज, ४. अनु से म्लेक्ष, ५. पुरु से पौरव।
यदु के नाना शुक्राचार्य ने उनके पिता ययाति को श्राप दे दिया था, जिससे वे असमय (भरी जवानी में) वृद्ध हो गए । राजा अपने बुढ़ापे से बहुत दुखी था। यदि कोई उन्हें अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा ले लेता तो वे पुनः जवान हो सकते थे । राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को जवानी देकर बुढ़ापा लेने को कहा। किन्तु यदु ने इंकार कर दिया। तब उन्होंने दुसरे पुत्र तुर्वसु को कहा तो उसने भी इंकार कर दिया। इसी प्रकार महाराज के तीसरे और चौथे पुत्र ने भी इंकार कर दिया। तब राजा ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुछा तो वह सहर्ष जवानी के बदले बुढ़ापा लेने को सहमत हो गया। पुरु की जवानी प्राप्त कर ययाति पुनः तरुण हो गए। तरुणावस्था मिल जाने से वे बहुत काल तक यथावत विषयों को भोग करते रहे।
उस समय की परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण पिता के सन्यास लेने के बाद सिंहासन का असली हकदार यदु था। किन्तु यदु द्वारा अपनी जवानी न दिये जाने के कारण महाराजा ययाति उससे रुष्ट हो गये थे । इसलिये यदु को राज्य नही दिया। वे अपने छोटे बेटे पुरू को बहुत चाहते थे और उसी को राज्य देना चाहते थे। राजा के सभासदो ने जयेष्ठ पुत्र के रहते इस कार्य का विरोध किया। किन्तु यदु ने अपने छोटे भाई का समर्थन किया और स्वयम राज्य लेने से इन्कार कर दिया और । इस प्रकार ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक बनाया। अन्य पुत्रों को दूर-दराज के छोटे छोटे प्रदेश सौंप दिये।
यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान चम्बल क्षेत्र , वेववती (वेतवा) और शुक्तिमती (केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था। श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र हुए जिनके नाम -सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।
यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे-जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे उनमें से अधिकांश को राजा सगर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र । वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि । वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये। हैहय वंश का विस्तृत परिचय इस ब्लाग की पृष्ठ संख्या 9 पर उल्लिखित है।
यदु के दुसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में 'विदर्भ' नामक एक राजा हुए। विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरे वंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु। बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए। विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वत वंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे -भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्रीकृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था। इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की।
अन्धक के वंशज अन्धकवंशी यादव कहलाये। अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि । वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ । अनु के पुत्र का नाम था अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ । पुनर्वसु के दो संतानें थी- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन नामक चार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।
सात्वत के पुत्रो से जो वंश परंपरा चली उनमें सर्वाधिक विख्यात वंश का नाम है वृष्णि-वंश। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया। वृष्णि के दो रानियाँ थी -एक नाम था गांधारी और दूसरी का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ। देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की दो रानियाँ थी।
देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ दस पुत्र हुए, उनके नाम थे -वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षा की थी और आनक तथा दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है। श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से, देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं। उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थी। उन सबका विवाह वसुदेव जी से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब रथ में बैठा कर उन्हें घर छोड़ने जा रहा था तो मार्ग में उसे आकाशवाणी से यह शब्द सुनाई पडे -"हे कंस! तू जिसे इतने प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा है उसी के आठवे पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु होगी।" देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर दिया। महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को भगवान श्रीकृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ से हुआ था। रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी।।
देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ पुत्र हुए उनके नाम थे - धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानन्द , धर्मानंद , नन्द और वल्लभ । नन्द से नन्द वंशी यादव ग्वाल शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा ने गोकुल में भगवान श्रीकृष्ण का पालन -पोषण किया। इस कारण वह आज भी परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वृष्णिवंश की इस वंशावली से ज्ञात होता है कि वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे।चंद्र वंश यदुवंश  की अति पवित्र शाखा है *ग्वालवंश* जिसका प्रतिनिधित्व नंदबाबा करते थे नंदबाबा और भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव दोनों भाई थे जिन्हें हरिवंश पुराण में स्पष्ट किया गया है इस बात का जिक्र भागवत पुराण में भी है *ग्वाल वंश* में ही कुल देवी मां विंध्यवासिनी देवी योग माया ने जन्म लिया है भागवत पुराण के अनुसार  भगवान श्री कृष्ण के गोकुल प्रवास के दौरान सभी देवी-देवताओं ने ग्वाल वंश में जन्म लिया।।
!!भगवान श्री कृष्ण अपने पूरे जीवन साधारण ग्वाला बनकर ही रहे जबकि वे स्वयं युगपुरूष है   राजा होते हुऐ भी वह साधारण ही रहे.
मुख्यता बाबा नंद ही ग्वाल वंश के मुखिया थे नंद बाबा के पास नौ लाख गाये थी ओर वही भगवान श्रीकृष्ण के पालक पिता थे ग्वाल वंश सर्व श्रेष्ठ वंश है जिसमे स्वयं भगवान विष्णु बाल रूप कृष्ण सोलह कलाओ के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल बालो गोपियो संग मधुर लीला करते रहै.।।

यादवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए। बाद मे मथुरा और द्वारिका यादवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवो की शाखा स्थापित हो गई। मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे।
महाराज यदु से यदु वंश चला। यदु वंश मे यदु की कई पीढ़ियों के बाद भगवान् श्री कृष्ण माता देवकी के गर्भ से मानव रूप में अवतरित हुए।
पुराण आदि से प्राप्त जानकारी के आधार पर सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य वन्शावली (प्रमुख यदु राजवंशी) इस प्रकार है:-
परमपिता नारायण
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ब्रह्मा
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अत्रि
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चन्द्रमा
( चन्द्रमा से चद्र वंश चला)
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बुध
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पुरुरवा
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आयु
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नहुष
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ययाति
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यदु
(यदु से यदुवंश चला)
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क्रोष्टु
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वृजनीवन्त
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स्वाहि (स्वाति)
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रुषाद्धगु
|
चित्ररथ
|
शशविन्दु
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पृथुश्रवस
|
अन्तर(उत्तर)
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सुयग्य
|
उशनस
|
शिनेयु
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मरुत्त
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कन्वलवर्हिष
|
रुक्मकवच
|
परावृत्
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ज्यामघ
|
विदर्भ्
|
कृत्भीम
|
कुन्ती
|
धृष्ट
|
निर्वृति
|
विदूरथ
|
दशाह
|
व्योमन
|
जीमूत
|
विकृति
|
भीमरथ
|
रथवर
|
दशरथ
|
येकादशरथ
|
शकुनि
|
करंभ
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देवरात
|
देवक्षत्र
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देवन
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मधु
|
पुरूरवस
|
पुरुद्वन्त
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जन्तु (अन्श)
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सत्वन्तु
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भीमसत्व
भीमसत्व के बाद यदवो की मुख्य दो शाखाए बन गयी
(1)-अन्धक ......और....(2)-बृष्णि
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कुकुर............................देविमूढस-(देविमूढस के दो रानिया थी)
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धृष्ट .............................|
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कपोतरोपन......................|
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विलोमान........................|
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अनु................................|
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दुन्दुभि...........................|
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अभिजित.........................|
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पुनर्वसु.............................|
|
आहुक..............................|
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उग्रसेन/देवक ...................शूर
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कन्स/देवकी ...................वासदेव
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....................................श्रीकृष्ण
वृष्णि वंश
भीमसत्व के बाद यादव राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शाखाए बन गई-पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश |अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था|
वृष्णि वंश का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-
ऊपर तालिका में बताया गया है कि देविमूढस (देवमीढ़) के दो रानिया थी पहली मदिषा और दूसरी वैश्यवर्णा| पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए| शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हूई, जिनके नाम नीचे नाम नीचे लिखे गए है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:-
१. वासुदेव ..वासुदेव -से श्रीकृष्ण और बलराम
२. देवभाग .. देवभाग-से उद्धव नामक पुत्र
३. देवश्रवा.. देवश्रवा-से शत्रुघ्न(एकलव्य) नामक पुत्र
४. अनाधृष्टि.. अनाधृष्टि-से यशस्वी नामक पुत्र हुआ
५. कनवक .. कनवक -से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र
६. वत्सावान .. वत्सावान-के गोद लिए पुत्र कौशिक थे.
७. गृज्जिम.. गृज्जिम- से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए
८. श्याम.. श्याम -अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे|
९. शमीक-के कोइ संतान नही थी।
१०. गंडूष .. गंडूष -के गोद लिए हुए चार पुत्र थे.
इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम नीचे लिखे है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:-
१. पृथुकी .. पृथुकी -से दन्तवक्र नामक पुत्र
२. पृथा (कुंती)
.. पृथा (कुंती)- से युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन नामक तीन पुत्र
३. श्रुतदेवा .. श्रुतदेवा - से जगृहु नामक पुत्र
४. श्रुतश्रवा .. श्रुतश्र
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जय ग्वाल जय गोपाल
जय यादव जय माधव

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